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कभी हुदूद से बाहर कभी वो हद में रहा | शाही शायरी
kabhi hudud se bahar kabhi wo had mein raha

ग़ज़ल

कभी हुदूद से बाहर कभी वो हद में रहा

मूसा रज़ा

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कभी हुदूद से बाहर कभी वो हद में रहा
मिरा यक़ीन हमेशा गुमाँ की ज़द में रहा

है बहर-ओ-बर में रवाँ हाल मेरा सय्यारा
गहे वो बुर्ज-ए-समक में गहे असद में रहा

उसी के दम से रही ज़िंदगी की रंगीनी
जुनूँ का कैफ़ जो पैमाना-ए-ख़िरद में रहा

उसे नसीब कहाँ लज़्ज़त-ए-सबील-ए-सफ़र
वो कारवाँ जो निगहबानी-ए-रसद में रहा

उसे कहाँ से मिलेगी तिरे मकाँ में अमाँ
तमाम-उम्र जौ पैकार-ए-नेक-ओ-बद में रहा

'रज़ा' जो गुज़रा तो कुछ रौशनी भी छोड़ गया
वो इक शरर था जो अंदेशा-ए-अबद में रहा