कभी हयात का ग़म है कभी तिरा ग़म है
हर एक रंग में नाकामियों का मातम है
ख़याल था तिरे पहलू में कुछ सुकूँ होगा
मगर यहाँ भी वही इज़्तिराब पैहम है
मिरे हबीब मिरी मुस्कुराहटों पे न जा
ख़ुदा-गवाह मुझे आज भी तिरा ग़म है
सहर से रिश्ता-ए-उम्मीद बाँधने वाले
चराग़-ए-ज़ीस्त की लौ शाम ही से मद्धम है
ये किस मक़ाम पे ले आई ज़िंदगी 'राही'
क़दम क़दम पे जहाँ बेबसी का आलम है
ग़ज़ल
कभी हयात का ग़म है कभी तिरा ग़म है
अहमद राही