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कभी गुलों कभी ख़ारों के दरमियाँ गुज़री | शाही शायरी
kabhi gulon kabhi Khaaron ke darmiyan guzri

ग़ज़ल

कभी गुलों कभी ख़ारों के दरमियाँ गुज़री

ख़ुर्शीदुल इस्लाम

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कभी गुलों कभी ख़ारों के दरमियाँ गुज़री
सबा चमन से ब-ज़ाहिर तो शादमाँ गुज़री

उसी का नाम अज़ल है उसी का नाम अबद
वो एक रात जो फूलों के दरमियाँ गुज़री

कहीं लपक उठे शो'ले कहीं महक उठे गुल
शब-ए-फ़िराक़ न पूछो कहाँ कहाँ गुज़री

ब-शक्ल-ए-क़ामत-ए-आदम ब-तर्ज़-ए-रक़्स-ए-परी
हमारे सर पे क़यामत भी क्या जवाँ गुज़री

कभी कभी तो ग़म-ए-दिल की लय बढ़ी इतनी
दिल-ए-हयात की धड़कन भी कुछ गराँ गुज़री

बड़े नशेब बहुत पेच-ओ-ख़म थे राहों में
मगर ये उम्र-ए-दो-रोज़ा रवाँ-दवाँ गुज़री

बहम रहे हैं सर-ओ-सीना यक-दिगर क्या क्या
कि सर पे तेग़ पड़ी दिल से जब सिनाँ गुज़री