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कभी गुल के कभी गुलज़ार के बोसे | शाही शायरी
kabhi gul ke kabhi gulzar ke bose

ग़ज़ल

कभी गुल के कभी गुलज़ार के बोसे

सरशार बुलंदशहरी

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कभी गुल के कभी गुलज़ार के बोसे
जबीं के चश्म के रुख़्सार के बोसे

लहू की सुर्ख़ियों में पय-ब-पय हमदम
महकते हैं तिरी दीवार के बोसे

लहू की सर-कशी मेरा मुक़द्दर है
मुझे मर्ग़ूब हैं तलवार के बोसे

फ़लक तकता रहा हैरत से उस का मुँह
ज़मीं लेती रही रफ़्तार के बोसे

हवा में सर-ब-सर ए'जाज़ है कोई
ख़ला में सब्त हैं असरार के बोसे