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कभी ग़मी के नाम पर कभी ख़ुशी की आड़ में | शाही शायरी
kabhi ghami ke nam par kabhi KHushi ki aaD mein

ग़ज़ल

कभी ग़मी के नाम पर कभी ख़ुशी की आड़ में

शाहिद फ़रीद

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कभी ग़मी के नाम पर कभी ख़ुशी की आड़ में
तबाह कर गया मुझे वो दोस्ती की आड़ में

वो जब चला गया यहाँ से फिर मुझे ख़बर हुई
कि मौत पालता रहा हूँ ज़िंदगी की आड़ में

वो शख़्स भी अजीब था अजीब उस के शौक़ थे
ख़ुदा तराशता रहा सनम-गरी की आड़ में

मैं क़ुर्बतों की चाह मैं क़रीब इस के हो गया
वो दूर मुझ से हो गया था फिर सही की आड़ में

अजब नहीं बहार-रुत में साँप भी हूँ बाग़ में
किसी गुलाब की जगह किसी कली की आड़ में

सुख़न की लय ने दूरियों के सिलसिले मिटा दिए
तिरे क़रीब आ गए हैं शाइरी की आड़ में