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कभी देखें जो रू-ए-यार दरख़्त | शाही शायरी
kabhi dekhen jo ru-e-yar daraKHt

ग़ज़ल

कभी देखें जो रू-ए-यार दरख़्त

इमदाद अली बहर

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कभी देखें जो रू-ए-यार दरख़्त
अपने फूलों को समझें ख़ार दरख़्त

चार-सू है इन्हें का लिख पीड़ा
ये अनासिर के हैं जो चार दरख़्त

मेरे गुलज़ार में हैं शो'ले फूल
मेरे हर आह शो'ला-बार दरख़्त

सौ फ़साद एक इश्क़ में उठ्ठे
बोया इक तुख़्म उगे हज़ार दरख़्त

जब चला बाग़ से वो सर्व-ए-रवाँ
हो गए ताएरों को दार दरख़्त

जिस को तूबा ज़माना कहता है
तेरे घर में है साया-दार दरख़्त

तू ख़िज़ाँ में जो सैर को निकले
मिरे हो जाएँ बे-बहार दरख़्त

फल न लाया निहाल-ए-इश्क़ अपना
फले-फूले हज़ार बार दरख़्त

'बहर' क्या नश्शे में ख़ुश आते हैं
नहर-ए-गुलशन के दार पार दरख़्त