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कभी भूले-बिसरे जो मैं कहीं किसी मय-कदे में चला गया | शाही शायरी
kabhi bhule-bisre jo main kahin kisi mai-kade mein chala gaya

ग़ज़ल

कभी भूले-बिसरे जो मैं कहीं किसी मय-कदे में चला गया

मोहम्मद अमीर आज़म क़ुरैशी

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कभी भूले-बिसरे जो मैं कहीं किसी मय-कदे में चला गया
मिरे नाम आया है जाम अगर न लिया गया न पिया गया

गया बज़्म-ए-हुस्न-ओ-जमाल में जो मैं शौक़-ए-अर्ज़-ए-तलब लिए
मिरे ज़ेहन-ओ-दिल का वो हाल था कि ज़बाँ से कुछ न कहा गया

मिरे नामा-बर ने जो ख़त दिया मुझे ला के जान-ए-बहार का
हुई ज़ेहन-ओ-दिल की वो कैफ़ियत न पढ़ा गया न सुना गया

ब-हज़ार कोशिश-ओ-जुस्तुजू मिरा ज़ख़्म-ए-दिल न हुआ रफ़ू
लगे लाख मरहम-ए-रंग-ओ-बू न भरा गया न सिया गया

तिरी बे-रुख़ी ने दिया वो ग़म जो किसी तरह भी हुआ न कम
मुझे घुन की तरह लगा रहा मिरी ज़िंदगानी को खा गया

वो तजस्सुस अपना भी ख़ूब था कि तलाश-ए-हक़ थी जगह जगह
मगर अपने दिल पे पड़ी नज़र तो मैं एक लम्हे में पा गया

है 'अमीर' दिल में वही चमक जो पड़ी थी नूर की इक झलक
वही एक परतव-ए-हुस्न तो मिरी ज़िंदगी को सजा गया