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कभी भँवर थी जो इक याद अब सुनामी है | शाही शायरी
kabhi bhanwar thi jo ek yaad ab sunami hai

ग़ज़ल

कभी भँवर थी जो इक याद अब सुनामी है

शमीम अब्बास

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कभी भँवर थी जो इक याद अब सुनामी है
मगर ये क्या कि मुझे अब भी तिश्ना-कामी है

मैं उस पे जान छिड़कता हूँ बा-ख़ुदा फिर भी
कहीं है कुछ मरे भीतर जो इंतिक़ामी है

मगर जो वो है वही है भला कहाँ कोई और
हज़ार ऐब सही माना लाख ख़ामी है

जो जी में आया वही मिन्न-ओ-एन है काग़ज़ पर
न सोचा समझा सा कुछ और न एहतिमामी है

किसी के रंग रंगा मैं न मेरे रंग कोई
ये इब्तिदाई नया ढब तो इख़्तितामी है

मुलाहिज़ा हो कहूँ क्यूँ तवज्जोह क्यूँ चाहूँ
कलाम कब है मिरा शेर ख़ुद-कलामी है

मैं अपनी मोंछों पे दूँ ताव भी तो किस मुँह से
यहाँ तो जो भी है मुझ से बड़ा हरामी है