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कभी बहार न आई बहार की सूरत | शाही शायरी
kabhi bahaar na aai bahaar ki surat

ग़ज़ल

कभी बहार न आई बहार की सूरत

सय्यद नज़ीर हसन सख़ा देहलवी

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कभी बहार न आई बहार की सूरत
बदल गई चमन-ए-रोज़गार की सूरत

हवा-ए-लुत्फ़-ओ-करम के फ़क़त सहारे पर
पड़े हैं राह में गर्द-ओ-ग़ुबार की सूरत

वफ़ा की शक्ल न देखी तुम्हारे वा'दों पर
यही ज़माने में है ए'तिबार की सूरत

पस-ए-फ़ना मिरी क़िस्मत खुली वो रोते हैं
ख़ुद अपने घर में बना कर मज़ार की सूरत

बगूला देख के शुक्र-ए-ख़ुदा वो कहते हैं
नज़र में फिर गई इक ख़ाकसार की सूरत

जिधर ज़माना फिरा मैं भी साथ साथ फिरा
जो रंग देखा वही इख़्तियार की सूरत

हर एक बात पे चुभती हुई जो कहता हूँ
तुम्हारे दिल में खटकता हूँ ख़ार की सूरत

किसी का भेस भरेंगे 'सख़ा' हैं चलते हुए
हज़ार रूप से देखेंगे यार की सूरत