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कभी अज़ाबों में बस रही है कभी ये ख़्वाबों में कट रही है | शाही शायरी
kabhi azabon mein bas rahi hai kabhi ye KHwabon mein kaT rahi hai

ग़ज़ल

कभी अज़ाबों में बस रही है कभी ये ख़्वाबों में कट रही है

ज़ाकिर ख़ान ज़ाकिर

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कभी अज़ाबों में बस रही है कभी ये ख़्वाबों में कट रही है
ये मुख़्तसर सी है ज़िंदगी जो हज़ार ख़ानों में बट रही है

कहीं पे ख़ुशियों की बारिशें हैं कहीं पे नग़्मात-ए-ऐश-ओ-मस्ती
मगर ग़रीबों के गुलशनों से ख़िज़ाँ ही बढ़ कर लिपट रही है

कहाँ है जज़्बे मोहब्बतों के कहाँ है रस्म-ए-वफ़ा-परस्ती
मिली थी तहज़ीब की बदौलत वही मोहब्बत तो घट रही है

लगे हैं बढ़ने नज़र नज़र में फ़हाशियों के तमाम सपने
सरों पे साया-फ़गन थी कल तक रिदा हया की सिमट रही है

जो सिन-रसीदा शजर थे सारे जड़ों से अपनी उखड़ रहे हैं
ज़मीं के रिश्तों की छाँव यारो सरों से अपने भी छट रही है

किसे सुनाएँगे अब वो 'ज़ाकिर' कि चाहतों में कशिश नहीं है
नज़र से ओझल मैं हो रहा हूँ निगह से वो भी तो हट रही है