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कभी अनजाने में जब भी किसी का दिल दुखाता हूँ | शाही शायरी
kabhi anjaane mein jab bhi kisi ka dil dukhata hun

ग़ज़ल

कभी अनजाने में जब भी किसी का दिल दुखाता हूँ

मुशताक़ सदफ़

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कभी अनजाने में जब भी किसी का दिल दुखाता हूँ
तो फिर तन्हाइयों में बैठ कर आँसू बहाता हूँ

मुझे मालूम है मंज़र हसीं वो हो चुके धुँदले
मगर क्यूँ रोज़ आँखों में वही मंज़र बुलाता हूँ

मिरी इस बात से नाराज़ हैं कुछ बस्तियों वाले
ख़ुशी घर घर लुटाता हूँ मगर ग़म क्यूँ छुपाता हूँ

मिरी साँसों की क़ुव्वत का बहुत मुश्किल है अंदाज़ा
मैं फूँकों से चराग़ों को नहीं सूरज बुझाता हूँ

मिरी फ़ितरत है अपने हाफ़िज़े को ताज़ा रखने की
मैं अपना हाफ़िज़ा कमज़ोर होने से बचाता हूँ