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कभी आबाद करता है कभी बरबाद करता है | शाही शायरी
kabhi aabaad karta hai kabhi barbaad karta hai

ग़ज़ल

कभी आबाद करता है कभी बरबाद करता है

हसन रिज़वी

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कभी आबाद करता है कभी बरबाद करता है
सितम हर रोज़ ही वो इक नया ईजाद करता है

हम उस की हर अदा पर रोज़ पर फैलाए आते हैं
नज़र के जाल में पाबंद जो सय्याद करता है

वो कल भी मो'तबर था आज भी रहबर हमारा है
वो दुश्मन जो वतन की खोखली बुनियाद करता है

उसी के इश्क़ में जलना मिरी तक़दीर ठहरी है
मोहब्बत की नई जो बस्तियाँ आबाद करता है

मैं उस के प्यार के धागों से अपनी उम्र बुनता हूँ
जो मेरा नाम ले ले कर मुझे बरबाद करता है

तज़ाद-ए-इश्क़ का ये खेल भी कितना अनोखा है
उसे हम भूल जाते हैं जो हम को याद करता है

ज़माना हो गया लेकिन ख़बर लेने नहीं आया
जो पंछी रोज़ मेरे नाम पर आज़ाद करता है

अजब वो शख़्स है उस की मोहब्बत भी निराली है
जो पहले क़ैद कर के बा'द में आज़ाद करता है

मैं इक मुद्दत से उस के प्यार की ख़ुश्बू में जीता हूँ
'हसन' मिस्ल-ए-हवा जो रोज़ मुझ को शाद करता है