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कब तसव्वुर यार-ए-गुल-रुख़्सार का फ़े'अल-ए-अबस | शाही शायरी
kab tasawwur yar-e-gul-ruKHsar ka feal-e-abas

ग़ज़ल

कब तसव्वुर यार-ए-गुल-रुख़्सार का फ़े'अल-ए-अबस

बहराम जी

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कब तसव्वुर यार-ए-गुल-रुख़्सार का फ़े'अल-ए-अबस
इश्क़ है इस गुलशन-ओ-गुलज़ार का फ़े'अल-ए-अबस

निकहत-ए-गेसू-ए-ख़ूबाँ ने किया बे-क़द्र उसे
अब है सौदा नाफ़ा-ए-तातार का फ़े'अल-ए-अबस

रिश्ता-ए-उलफ़त रग-ए-जाँ में बुतों का पड़ गया
अब ब-ज़ाहिर शग़्ल है ज़ुन्नार का फ़े'अल-ए-अबस

आरज़ू-मंद-ए-शहादत आशिक़-ए-सादिक़ हुए
ग़ैर को डर है तिरी तलवार का फ़े'अल-ए-अबस

जब दिल-ए-संगीं-दिलाँ में कुछ असर होता नहीं
गिर्या है इस दीदा-ए-ख़ूँ-बार का फ़े'अल-ए-अबस

ख़्वाब में भी यार को इस का ख़याल आता नहीं
जागना था दीदा-ए-बेदार का फ़े'अल-ए-अबस

ख़ाली-अज़-हिकमत हुआ 'बहराम' कब फ़ेल-ए-हकीम
काम कब है दावर-ए-दादार का फ़े'अल-ए-अबस