EN اردو
कब तलक हमारी सई-ए-अमल राएगाँ रहे | शाही शायरी
kab talak hamari sai-e-amal raegan rahe

ग़ज़ल

कब तलक हमारी सई-ए-अमल राएगाँ रहे

सग़ीर अहमद सूफ़ी

;

कब तलक हमारी सई-ए-अमल राएगाँ रहे
कब तक ग़ुबार-ए-दीदा-ओ-दिल राएगाँ रहे

आसूदा-बयाँ तो हज़ारों हैं बज़्म में
लेकिन वो बद-नसीब जो तिश्ना-बयाँ रहे

है अब ज़बान-ए-ख़ल्क़ उन्हीं की फ़साना-ख़्वाँ
कल तक तिरे इ'ताब में जो बे-ज़बाँ रहे

क्या ज़िक्र ऐश-रफ़्ता-ए-अहद-ए-बहार का
ग़म भी मुझे क़ुबूल है गर जावेदाँ रहे

क्या एहतियात-ए-साग़र-ओ-मीना करूँ कि जब
बर्बादियों में साज़िश-ए-पीर-ए-मुग़ाँ रहे

'सूफ़ी' चमन में कोशिश-ए-पैहम के बावजूद
जो फूल नौहा-ख़्वाँ थे यूँही नौहा-ख़्वाँ रहे