कब तलक हमारी सई-ए-अमल राएगाँ रहे
कब तक ग़ुबार-ए-दीदा-ओ-दिल राएगाँ रहे
आसूदा-बयाँ तो हज़ारों हैं बज़्म में
लेकिन वो बद-नसीब जो तिश्ना-बयाँ रहे
है अब ज़बान-ए-ख़ल्क़ उन्हीं की फ़साना-ख़्वाँ
कल तक तिरे इ'ताब में जो बे-ज़बाँ रहे
क्या ज़िक्र ऐश-रफ़्ता-ए-अहद-ए-बहार का
ग़म भी मुझे क़ुबूल है गर जावेदाँ रहे
क्या एहतियात-ए-साग़र-ओ-मीना करूँ कि जब
बर्बादियों में साज़िश-ए-पीर-ए-मुग़ाँ रहे
'सूफ़ी' चमन में कोशिश-ए-पैहम के बावजूद
जो फूल नौहा-ख़्वाँ थे यूँही नौहा-ख़्वाँ रहे
ग़ज़ल
कब तलक हमारी सई-ए-अमल राएगाँ रहे
सग़ीर अहमद सूफ़ी