कब तक इस प्यास के सहरा में झुलसते जाएँ
अब ये बादल जो उठे हैं तो बरसते जाएँ
कौन बतलाए तुम्हें कैसे वो मौसम हैं कि जो
मुझ से ही दूर रहें मुझ में ही बस्ते जाएँ
हम से आज़ाद-मिज़ाजों पे ये उफ़्ताद है क्या
चाहते जाएँ उसे ख़ुद को तरसते जाएँ
हाए क्या लोग ये आबाद हुए हैं मुझ में
प्यार के लफ़्ज़ लिखें लहजे से डसते जाएँ
आइना देखूँ तो इक चेहरे के बे-रंग नुक़ूश
एक नादीदा सी ज़ंजीर में कसते जाएँ
जुज़ मोहब्बत किसे आया है मयस्सर 'उम्मीद'
ऐसा लम्हा कि जिधर सदियों के रस्ते जाएँ
ग़ज़ल
कब तक इस प्यास के सहरा में झुलसते जाएँ
उम्मीद फ़ाज़ली