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कब सुनी तुम ने रागनी मेरी | शाही शायरी
kab suni tumne ragni meri

ग़ज़ल

कब सुनी तुम ने रागनी मेरी

शाइस्ता सहर

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कब सुनी तुम ने रागनी मेरी
गुफ़्तनी है ये ख़ामुशी मेरी

एक आहट से जागती हूँ मैं
एक दस्तक है ज़िंदगी मेरी

अब्र-ए-ज़ुल्मत किसे डराता है
और फैलेगी चाँदनी मेरी

कौन ठहरेगा देखना ये है
दौर-ए-मीना या तिश्नगी मेरी

आह आया ही था वो सपने में
दफ़अ'तन आँख खुल गई मेरी

वज्ह-ए-बेचैनी क्या बताऊँ मैं
चैन तेरा है बे-कली मेरी

तुझ पे गुज़रे न आलम-ए-वहशत
तू न देखे ये बेबसी मेरी

इस ने रक्खा जो सामने साग़र
बढ़ गई और तिश्नगी मेरी

मैं तो साए से अपने कतराऊँ
देख ख़ुद से ये कज-रवी मेरी

तुम फ़रोज़ाँ हो इक सितारे से
मेरे अंदर है रौशनी मेरी

तुझ को देखूँ या कुछ नहीं देखूँ
तेरी ख़्वाहिश है दीदनी मेरी