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कब से उलझ रहे हैं दम-ए-वापसीं से हम | शाही शायरी
kab se ulajh rahe hain dam-e-wapsin se hum

ग़ज़ल

कब से उलझ रहे हैं दम-ए-वापसीं से हम

बिस्मिल सईदी

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कब से उलझ रहे हैं दम-ए-वापसीं से हम
दो अश्क पोंछने को तिरी आस्तीं से हम

होगा तुम्हारा नाम ही उनवान-ए-हर-वरक़
औराक़-ए-ज़िंदगी को उलट दें कहीं से हम

संग-ए-दर-ए-अदू पे हमारी जबीं नहीं
ये सज्दे कर रहे हैं तुम्हारी जबीं से हम

दोहराई जा सकेगी न अब दास्तान-ए-इश्क़
कुछ वो कहीं से भूल गए हैं कहीं से हम

'बिस्मिल' हरीम-ए-हुस्न में हैं काम-याब-ए-शौक़
जोश-ए-शबाब ओ रंग-ए-रुख़-ए-आतिशीं से हम