कब से राज़ी था बदन बे-सर-ओ-सामानी पर
शब मैं हैरान हुआ ख़ून की तुग़्यानी पर
एक चहकार ने सन्नाटे का तोड़ा पिंदार
एक नौ-बर्ग हँसा दश्त की वीरानी पर
कल बगूले की तरह उस का बदन रक़्स में था
किस क़दर ख़ुश थी मिरी ख़ाक परेशानी पर
मेरे होंटों से जो सूरज का किनारा टूटा
बन गया एक सितारा तिरी पेशानी पर
कौन सा शहर-ए-सबा फ़तह किया चाहता हूँ
लोग हैराँ हैं मिरे कार-ए-सुलैमानी पर
ग़ज़ल
कब से राज़ी था बदन बे-सर-ओ-सामानी पर
इरफ़ान सिद्दीक़ी