कब से इस दुनिया को सरगर्म-ए-सफ़र पाता हूँ मैं
फिर भी हर मंज़िल को पहली रहगुज़र पाता हूँ मैं
मुर्शिद-ए-मय-ख़ाने के क़दमों पे सर पाता हूँ मैं
अब दिमाग़-ए-मय-परस्ती अर्श पर पाता हूँ मैं
हर तरफ़ साक़ी तिरा फ़ैज़-ए-नज़र पाता हूँ मैं
ख़ानक़ाहों में भी मस्ती का असर पाता हूँ मैं
दम-ब-दम उस रुख़ पे इक हुस्न-ए-दिगर पाता हूँ मैं
हर निगाह-ए-शौक़ को पहली नज़र पाता हूँ मैं
सज्दा उस का है जबीं उस की है क़िस्मत उस की है
जिस की पेशानी पे उन की ख़ाक-ए-दर पाता हूँ मैं
अल्लाह अल्लाह साकिनान-ए-कू-ए-जानाँ का वक़ार
हर गदा-ए-आस्ताँ को ताजवर पाता हूँ मैं
अर्श को हैरत हरम को वज्द नाज़ाँ बंदगी
हाए वो आलम कि जब सज्दे में सर पाता हूँ मैं
ले गए किस के रुख़ ओ गेसू बहार-ए-रोज़-ओ-शब
मुद्दतों से घर को बे-शाम-ओ-सहर पाता हूँ मैं
दूर होती है रह-ए-ग़ुर्बत में कोसों की थकन
जब किसी मंज़िल पे कोई हम-सफ़र पाता हूँ मैं
अहल-ए-महफ़िल होंगे क्या अहल-ए-बसीरत ऐ 'शफ़ीक़'
मीर-ए-महफ़िल ही को बे-फ़िक्र-ओ-नज़र पाता हूँ मैं

ग़ज़ल
कब से इस दुनिया को सरगर्म-ए-सफ़र पाता हूँ मैं
शफ़ीक़ जौनपुरी