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कब से बंजर थी नज़र ख़्वाब तो आया | शाही शायरी
kab se banjar thi nazar KHwab to aaya

ग़ज़ल

कब से बंजर थी नज़र ख़्वाब तो आया

ग़ुफ़रान अमजद

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कब से बंजर थी नज़र ख़्वाब तो आया
शुक्र है दश्त में सैलाब तो आया

रौशनी ले के अक़ीदों के खंडर में
मक्र ओढ़े सही महताब तो आया

कश्ती-ए-जाँ को ये तस्कीन बहुत है
ख़ैरियत पूछने गिर्दाब तो आया

दौलत इश्क़ गँवा कर सही 'अमजद'
फ़हम में नुक्ता-ए-आदाब तो आया