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कब निगह उस की इश्वा-बार नहीं | शाही शायरी
kab nigah uski ishwa-bar nahin

ग़ज़ल

कब निगह उस की इश्वा-बार नहीं

मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ़्ता

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कब निगह उस की इश्वा-बार नहीं
कब निगाहें करिश्मा-ज़ार नहीं

ग़ैर पर रहम ये किसे आया
तुम तो माना सितम-शिआर नहीं

याँ फ़ुग़ाँ से लहू टपकता है
मैं नवा-संज-ए-शाख़-सार नहीं

कुल्फ़त-ए-दिल से है जो आलूदा
गौहर-ए-अश्क आबदार नहीं

हम हैं ऐसे फ़राख़-रू दरवेश
महफ़िल-ए-पादशह से आर नहीं

न जला ख़ाना-ए-अदू तो न हँस
शोला-ए-आह है शरार नहीं

बाग़ बे-सर्फ़ा चल के क्या कीजे
जिन से थी बाग़ की बहार नहीं

बादा बेहूदा पी के क्या कीजे
अब वो साक़ी नहीं वो यार नहीं

ऐ मुनज्जम अबस ये नादानी
तू कुछ अंदाज़ा-दान-ए-कार नहीं

तू रविश-याब-ए-मेहर-ओ-माह ग़लत
तू अदा-संज-ए-रोज़गार नहीं

वाक़िफ़ असरार-ए-आसमानी से
जुज़ हरीफ़ान-ए-बादा-ख़्वार नहीं

चढ़ गए हैं किसी के फिर दम पर
'शेफ़्ता' आज बे-क़रार नहीं