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कब मेरे वास्ते कोई मुश्किल नहीं रही | शाही शायरी
kab mere waste koi mushkil nahin rahi

ग़ज़ल

कब मेरे वास्ते कोई मुश्किल नहीं रही

शारिब लखनवी

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कब मेरे वास्ते कोई मुश्किल नहीं रही
कब मौत ज़िंदगी के मुक़ाबिल नहीं रही

दुनिया की दोस्ती का तो क्या ज़िक्र कीजिए
दुनिया तो दुश्मनी के भी क़ाबिल नहीं रही

यूँ मेरी ज़िंदगी है हर इक शय से दूर दूर
जैसे ये काएनात में शामिल नहीं रही

तस्वीर-ए-इन्क़िलाब बना जा रहा हूँ मैं
अब मेरी मुस्तक़िल कोई मंज़िल नहीं रही

इज़हार-ए-बे-वफ़ाई-ए-दुनिया न कीजिए
दुनिया किसी के दर्द में शामिल नहीं रही

नक़्शे बदल चुके हैं निज़ाम-ए-हयात के
कश्ती-ए-ज़ीस्त तालिब-ए-साहिल नहीं रही

आया हर एक गाम पे इक इंक़लाब-ए-नौ
इंसाँ की मुस्तक़िल कोई मंज़िल नहीं रही

ख़ुद मुश्किलों को जिस ने गले से लगा लिया
फिर उस के वास्ते कोई मुश्किल नहीं रही

'शारिब' ये क्या हुआ कि हर इक शय है अजनबी
वो हम नहीं रहे कि वो महफ़िल नहीं रही