कब लज़्ज़तों ने ज़ेहन का पीछा नहीं किया
ये मेरा हौसला था कि लब वा नहीं किया
तज्दीद-ए-इर्तिबात भी मुमकिन थी बा'द में
मैं ने ही इस रविश को गवारा नहीं किया
पहले तो इक जुनून सा अर्ज़-ए-तलब का था
जब वो मिला तो दल ने तक़ाज़ा नहीं किया
सूरज रहा जो दिन में मिरे घर से दूर दूर
फिर मैं ने रात में भी उजाला नहीं किया
क्या वहम था कि खिलते ही लब बंद हो गए
क्या बात थी कि लफ़्ज़ भी पूरा नहीं किया
जब मेरा इश्तियाक़ हुआ ज़ब्त-आज़मा
फिर उस ने अपने आप ही पर्दा नहीं किया
मैं सादा-लौह सादा-बयाँ सादा-आरज़ू
और उस ने सादगी पे भरोसा नहीं किया
मैं ने भी चलते चलते किया था यूँही सवाल
क्या हो गया जो आप ने पूरा नहीं किया
वो कम-निगाह था मगर उस से चुरा के आँख
मैं ने भी अपने साथ कुछ अच्छा नहीं किया
अमृत समझ के पी लिया 'अंजुम' ने ज़हर-ए-ग़म
लेकिन तुम्हारे नाम को रुस्वा नहीं किया
ग़ज़ल
कब लज़्ज़तों ने ज़ेहन का पीछा नहीं किया
अनवर अंजुम