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कब कोई तुझ सा आईना-रू याँ है दूसरा | शाही शायरी
kab koi tujh sa aaina-ru yan hai dusra

ग़ज़ल

कब कोई तुझ सा आईना-रू याँ है दूसरा

जुरअत क़लंदर बख़्श

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कब कोई तुझ सा आईना-रू याँ है दूसरा
है तू तिरा ही अक्स नुमायाँ है दूसरा

पूछ उस की मत ख़बर जिसे नासेह सिए था तो
वो धज्जियाँ उड़ा ये गरेबाँ है दूसरा

शक्ल उन की ये है जो कि हैं मह्व-ए-जमाल-ए-यार
शश्दर खड़ा है एक तो हैराँ है दूसरा

रुख़ उस का देखियो शब-ए-महताब में कोई
गोया ज़मीं पे ये मह-ए-ताबाँ है दूसरा

क्या दिल जिगर की कहिए तमन्ना-ए-वस्ल में
हसरत भरा है एक पुर-अरमाँ है दूसरा

वादी-ए-इश्क़ में हमें बरसों यूँ ही कटे
इक दश्त तय किया कि बयाबाँ है दूसरा

तेरे ख़िराम-ए-नाज़ के सदक़े कि कब कोई
ऐसा चमन में सर्व-ख़िरामाँ है दूसरा

ग़म-ख़्वार-ओ-मूनिस अब तिरे बीमार के हैं यूँ
तस्कीन एक दे तो हिरासाँ है दूसरा

'जुरअत' ग़ज़ल पढ़ और इक ऐसी कि सब कहें
कब इस तरह का कोई ग़ज़ल-ख़्वाँ है दूसरा