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कब कौन कहाँ किस लिए ज़ंजीर-बपा है | शाही शायरी
kab kaun kahan kis liye zanjir-bapa hai

ग़ज़ल

कब कौन कहाँ किस लिए ज़ंजीर-बपा है

जलील ’आली’

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कब कौन कहाँ किस लिए ज़ंजीर-बपा है
ये उक़्द-ए-असरार-ए-अज़ल किस पे खुला है

किस भेस कोई मौज-ए-हवा साथ लगा ले
किस देस निकल जाए ये दिल किस को पता है

इक हाथ की दूरी पे हैं सब चाँद सितारे
ये अर्श-ए-जाँ किस दम-ए-दीगर की अता है

आहंग-ए-शब-ओ-रोज़ के नैरंग से आगे
दिल एक गुल-ए-ख़्वाब की ख़ुश्बू में बसा है

ये शहर-ए-तिलिस्मात है कुछ कह नहीं सकते
पहलू में खड़ा शख़्स फ़रिश्ता कि बला है

हर सोच है इक गुम्बद-ए-एहसास में गर्दां
और गुम्बद-ए-एहसास में दर हर्फ़-ए-दुआ है

ये दीद तो रूदाद-ए-हिजाबात है 'आली'
वो माह-ए-मुकम्मल न घटा है न बढ़ा है