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कब गवारा है मुझे और कहीं पर चमके | शाही शायरी
kab gawara hai mujhe aur kahin par chamke

ग़ज़ल

कब गवारा है मुझे और कहीं पर चमके

शहबाज़ ख़्वाजा

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कब गवारा है मुझे और कहीं पर चमके
मेरा सूरज है तो फिर मेरी ज़मीं पर चमके

कितने गुलशन कि सजे थे मिरे इक़रार के नाम
कितने ख़ंजर कि मिरी एक नहीं पर चमके

जिस ने दिन भर की तमाज़त को समेटा चुप-चाप
शब को तारे भी उसी दश्त-नशीं पर चमके

ये तिरी बज़्म ये इक सिलसिला-ए-निकहत-ओ-नूर
जितने तारीक मुक़द्दर थे यहीं पर चमके

यूँ भी हो वस्ल का सूरज कभी उभरे और फिर
शाम-ए-हिज्राँ तिरे इक एक मकीं पर चमके

आँख की ज़िद है कि पलकों पे सितारे टूटें
दिल की ख़्वाहिश कि हर इक ज़ख़्म यहीं पर चमके