EN اردو
कब बयाबाँ राह में आया ये समझा ही नहीं | शाही शायरी
kab bayaban rah mein aaya ye samjha hi nahin

ग़ज़ल

कब बयाबाँ राह में आया ये समझा ही नहीं

बदीउज़्ज़माँ ख़ावर

;

कब बयाबाँ राह में आया ये समझा ही नहीं
चलते रहने के सिवा ध्यान और कुछ था ही नहीं

कर्ब-ए-मंज़िल का हो क्या एहसास इन अश्जार को
जिन के साए में मुसाफ़िर कोई ठहरा ही नहीं

किस को बतलाते कि आए हैं कहाँ से कौन हैं
हम फ़क़ीरों का किसी ने हाल पूछा ही नहीं

क्या तलब करता किसी से ज़िंदगी का ख़ूँ-बहा
मुजरिमों में मेरा क़ातिल कोई निकला ही नहीं

बे-तहाशा प्यार की दौलत लुटाई उम्र भर
दोस्ती का हम ने कुछ अंजाम सोचा ही नहीं

घूमता पाया गया था शहर में वो एक दिन
फिर किसी ने तेरे दीवाने को देखा ही नहीं

दोस्तो 'ख़ावर' सुनाए क्या तुम्हें ताज़ा ग़ज़ल
मुद्दतों से उस ने कोई शे'र लिक्खा ही नहीं