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कब बैठते हैं चैन से ईज़ा उठाए बिन | शाही शायरी
kab baiThte hain chain se iza uThae bin

ग़ज़ल

कब बैठते हैं चैन से ईज़ा उठाए बिन

जुरअत क़लंदर बख़्श

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कब बैठते हैं चैन से ईज़ा उठाए बिन
लगता नहीं है जी कहीं लग्गा लगाए बिन

जब तक न बे-क़रार हों पड़ता नहीं क़रार
आता नहीं है चैन हमें तिलमिलाए बिन

बे-आह-ओ-नाला मुँह से निकलती नहीं है बात
हैरान बैठे रहते हैं आँसू बहाए बिन

ज़िंदाँ लगे है घर जो किसी का न हों असीर
आते नहीं ब-ख़ुद कहीं हम आए जाए बिन

दीवाने गर न हों तो परी-रू न देखें सैर
बिगड़े है बात हाल-ए-परेशाँ बनाए बिन

जुम्बिश न दस्त-ओ-पा में हो बे-शोरिश-ए-जुनूँ
अफ़्सुर्दा-तब्अ रहते हैं धूमें मचाए बिन

गर हो न दर्द-ए-इश्क़ तो बे-दर्द हम कहाएँ
कुछ लुत्फ़-ए-गुफ़्तुगू ही नहीं हाए-वाए बिन

क्या जोश-ए-तब्अ हो न मय-ए-इश्क़ गर पिएँ
कुछ कैफ़ियत नहीं है ये प्याला पिलाए बिन

गर बर में हो न कोई तो पहलू-तही रहे
क्या बैठना है ज़ानू से ज़ानू भिड़ाए बिन

कोई न दे दिखाई तो क्या ख़ाक देखिए
रहते असीर-ए-ग़म हैं किसी के बुलाए बिन

अफ़्कार सैकड़ों हों अगर हो न फ़िक्र-ए-इश्क़
वारस्तगी कहाँ है कहें जी फँसाए बिन

क़ातिल से गर न मिलिए तो 'जुरअत' हमारी क्या
जूँ गुल शगुफ़्ता हो न कोई ज़ख़्म खाए बिन