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काश तुम समझ सकतीं ज़िंदगी में शाएर की ऐसे दिन भी आते हैं | शाही शायरी
kash tum samajh saktin zindagi mein shaer ki aise din bhi aate hain

ग़ज़ल

काश तुम समझ सकतीं ज़िंदगी में शाएर की ऐसे दिन भी आते हैं

सलाम मछली शहरी

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काश तुम समझ सकतीं ज़िंदगी में शाएर की ऐसे दिन भी आते हैं
जब उसी के पर्वर्दा चाँद उस पे हँसते हैं फूल मुस्कुराते हैं

अब तो मेरे शह-पारे जो तुम ही से थे मंसूब यूँ झलक दिखाते हैं
दूर एक मंदिर में कुछ दिए मुरादों के जैसे झिलमिलाते हैं

तुम ने कब ये समझा था मैं ने कब ये सोचा था ज़िंदगी की राहों में
चलते चलते दो राही एक मोड़ पर आ कर ख़ुद ही छूट जाते हैं

काम हुस्न-कारों का आँसुओं की ज़ौ दे कर कुछ कँवल खिला देना
मौत हुस्न-कारों की जब वो ख़ुद शब-ए-ग़म में ये दिए बुझाते हैं

तेज़-तर हवाएँ हैं मौत की फ़ज़ाएँ हैं रात सर्द ओ जामिद है
अहमरीं सितारे भी वाक़ई दिवाने हैं अब भी मुस्कुराते हैं

अलविदा ऐ मेरी शाहकार नज़्मों की ज़र-निगार शहज़ादी
मावरा-ए-उल्फ़त भी कुछ नए तक़ाज़े हैं जो मुझे बुलाते हैं