EN اردو
काश समझते अहल-ए-ज़माना | शाही शायरी
kash samajhte ahl-e-zamana

ग़ज़ल

काश समझते अहल-ए-ज़माना

अब्दुल रहमान ख़ान वासिफ़ी बहराईची

;

काश समझते अहल-ए-ज़माना
क्या है हक़ीक़त क्या है फ़साना

इश्क़ का शेवा हुस्न की फ़ितरत
एक हक़ीक़त एक फ़साना

राह-ए-वफ़ा दुश्वार बहुत है
सोच समझ कर पाँव बढ़ाना

तुम न हो जिस के कौन हो उस का
जिस के हुए तुम उस का ज़माना

रहरव-ए-राह-ए-इश्क़-ओ-मोहब्बत
जान तो देना लब न हिलाना

पहलु-ए-गुल में ख़ार निहाँ हैं
गुलचीं अपना हाथ बचाना

हम ने तो 'वसफ़ी' पाया है उन को
जल्वा-ब-जल्वा ख़ाना-ब-ख़ाना