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काश मेरे डूबने का वो भी मंज़र देखता | शाही शायरी
kash mere Dubne ka wo bhi manzar dekhta

ग़ज़ल

काश मेरे डूबने का वो भी मंज़र देखता

राम नाथ असीर

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काश मेरे डूबने का वो भी मंज़र देखता
लेकिन इस को क्या पड़ी थी क्यूँ पलट कर देखता

दुश्मनों से ख़ौफ़ खाता उम्र भर मैं भी अगर
दोस्तों की आस्तीनों में न ख़ंजर देखता

शहर से निकले हैं हम किस जुर्म की पादाश में
ये तो उस को देखना था वो सितमगर देखता

मैं था शाहीं सब की नज़रें थीं मिरी पर्वाज़ पर
कौन अब आ कर मिरे टूटे हुए पर देखता

मय-कशी का हम पे गर इल्ज़ाम है तो हो 'असीर'
कोई ऐसे ज़िंदगी भर ज़हर पी कर देखता