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काश मैं भी कभी यारों का कहा मान सकूँ | शाही शायरी
kash main bhi kabhi yaron ka kaha man sakun

ग़ज़ल

काश मैं भी कभी यारों का कहा मान सकूँ

इरफ़ान सिद्दीक़ी

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काश मैं भी कभी यारों का कहा मान सकूँ
आँख के जिस्म पे ख़्वाबों की रिदा तान सकूँ

मैं समुंदर हूँ न तू मेरा शनावर प्यारे
तू बयाबाँ है न मैं ख़ाक तिरी छान सकूँ

रू-ए-दिलबर भी वही चेहरा-ए-क़ातिल भी वही
तू कभी आँख मिलाए तो मैं पहचान सकूँ

वक़्त ये और है मुझ में ये कहाँ ताब कि मैं
यारियाँ झेल सकूँ दुश्मनियाँ ठान सकूँ

जब सितम है ये तआरुफ़ ही तो कैसा हो अगर
मैं उसे जानने वालों की तरह जान सकूँ