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काश अब्र करे चादर-ए-महताब की चोरी | शाही शायरी
kash abr kare chadar-e-mahtab ki chori

ग़ज़ल

काश अब्र करे चादर-ए-महताब की चोरी

इंशा अल्लाह ख़ान

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काश अब्र करे चादर-ए-महताब की चोरी
ता मुझ से भी हो जाम-ए-मय-ए-नाब की चोरी

टुक तकिया पे सर धर के रहा सो तो लगाई
साहब ने हमें मसनद-ए-कम-ख़्वाब की चोरी

सीमाब के आँसू वो सदा रोए इलाही
की जिस ने हो मेरे दिल-ए-बेताब की चोरी

वो इश्क़ कि सच आँखों से काजल को चुरा ले
किस तरह न आशिक़ के करे ख़्वाब की चोरी

मुझ को सर-ए-बाज़ार घिसटवा के निकाला
की उस ने ही कुछ ख़ाना-ए-नव्वाब की चोरी

जिस ने कि मिरे चेहरे से आब आह उड़ा ले
साबित हुई उस पर दुर-ए-नायाब की चोरी

शब सेंध जो दी दाग़ की एक चोर ने 'इंशा'
तो हो गई सब सब्र के अस्बाब की चोरी