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कारोबार-ए-इश्क़ की कसरत कभी ऐसी न थी | शाही शायरी
karobar-e-ishq ki kasrat kabhi aisi na thi

ग़ज़ल

कारोबार-ए-इश्क़ की कसरत कभी ऐसी न थी

मुंशी नौबत राय नज़र लखनवी

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कारोबार-ए-इश्क़ की कसरत कभी ऐसी न थी
दिल न था तो तंगी-ए-फ़ुर्सत कभी ऐसी न थी

यास से वीरानी-ए-हसरत कभी ऐसी न थी
दिल में सन्नाटा न था वहशत कभी ऐसी न थी

उन के वा'दे पर हमें जीना पड़ा है हश्र तक
वर्ना तूलानी शब-ए-फ़ुर्क़त कभी ऐसी न थी

देख डाले ज़िंदगी में वस्ल-ओ-फुर्क़त के तिलिस्म
ग़म कभी ऐसा न था राहत कभी ऐसी न थी

आप ने बीमार-पुर्सी की तो जीना है वबाल
वर्ना मरने की मुझे हसरत कभी ऐसी न थी

बा-मज़ा है किस क़दर इंकार उन का वस्ल में
तुझ में ऐ ख़ून-ए-जिगर लज़्ज़त कभी ऐसी न थी

दिल को क्या समझा दिया नौमीदी-ए-जावेद ने
पर्दा-दार-ए-ग़म शब-ए-फ़ुर्क़त कभी ऐसी न थी

ज़िंदगी की कश्मकश से मर के पाई कुछ नजात
इस से पहले ऐ 'नज़र' फ़ुर्सत कभी ऐसी न थी