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कार-ए-वहशत में भी मजबूर है इंसाँ अब तक | शाही शायरी
kar-e-wahshat mein bhi majbur hai insan ab tak

ग़ज़ल

कार-ए-वहशत में भी मजबूर है इंसाँ अब तक

सज्जाद बाक़र रिज़वी

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कार-ए-वहशत में भी मजबूर है इंसाँ अब तक
हाथ अपना है और अपना ही गरेबाँ अब तक

धज्जियाँ मेरे गरेबाँ की उड़ी फिरती हैं
गूँजता है मिरे नारों से बयाबाँ अब तक

कब से मैं कुंज-ए-ग़म-ए-दिल में छुपा बैठा हूँ
याद करती है मुझे शोरिश-ए-दौराँ अब तक

मेरे हिस्से में भी है दौलत-ए-बेदारी-ए-शब
इक ख़लिश सी है मता-ए-ग़म-ए-पिन्हाँ अब तक

बुत-कदा टूट के का'बे की बना डाल गया
दिल जो उजड़ा तो है इक उम्र से वीराँ अब तक

तू गुज़रगाह-ए-तमन्ना में था इक परतव-ए-माह
मैं अँधेरों में भटकता हूँ हिरासाँ अब तक

तू वो सूरज था कि मौसम की न थी तुझ को ख़बर
मैं हूँ आँधी में चराग़-ए-तह-ए-दामाँ अब तक

मेरे एहसास की गर्मी मिरे दिल की बरसात
सब रुतें हैं तिरी आँखों से नुमायाँ अब तक

एक सूरत थी जो आँखों में लिए फिरता हूँ
एक वहशत थी जो रखती है परेशाँ अब तक

चंद यादें हैं मिरी ज़ीस्त का हासिल 'बाक़र'
इन्हीं यादों के सहारे हूँ ग़ज़ल-ख़्वाँ अब तक