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काम कुछ आ न सकी रस्म-ए-शनासाई भी | शाही शायरी
kaam kuchh aa na saki rasm-e-shanasai bhi

ग़ज़ल

काम कुछ आ न सकी रस्म-ए-शनासाई भी

मुशफ़िक़ ख़्वाजा

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काम कुछ आ न सकी रस्म-ए-शनासाई भी
शामिल-ए-बज़्म थी शायद मिरी तन्हाई भी

काश तू अपनी तलब में कभी पहुँचे मुझ तक
तेरा ही आइना है चश्म-ए-तमाशाई भी

सहल मत समझो मिरे शौक़ की नाकामी को
मुफ़्त मिलती है कहीं इज़्ज़त-ए-रुस्वाई भी

चश्म-ए-बे-ख़्वाब में है ख़्वाब की सूरत इक शख़्स
ख़ुद से ग़ाफ़िल भी है और महव-ए-ख़ुद-आराई भी

ख़ैर मैं तो इसी क़ाबिल था मगर ये तो बता
ज़िंदगी क्या तू किसी को कभी रास आई भी