EN اردو
काम अगर हस्ब-ए-मुद्दआ न हुआ | शाही शायरी
kaam agar hasb-e-muddaa na hua

ग़ज़ल

काम अगर हस्ब-ए-मुद्दआ न हुआ

इस्माइल मेरठी

;

काम अगर हस्ब-ए-मुद्दआ न हुआ
तेरा चाहा हुआ बुरा न हुआ

ख़ाक उड़ती जो हम ख़ुदा होते
बंदगी का भी हक़ अदा न हुआ

सब जताया किए नियाज़-ए-क़दीम
वो किसी का भी आश्ना न हुआ

रख़्श-ए-अय्याम को क़रार कहाँ
इधर आया उधर रवाना हुआ

क्या खुले जो कभी न था पिन्हाँ
क्यूँ मिले जो कभी जुदा न हुआ

सख़्त फ़ित्ना जहान में उठता
कोई तुझ सा तिरे सिवा न हुआ

जो गधा ख़ू-ए-बद की दलदल में
जा फँसा फिर कभी रिहा न हुआ

तू न हो ये तो हो नहीं सकता
मेरा क्या था हुआ हुआ न हुआ

रह-रव-ए-मस्लक-ए-तवक्कुल है
वो जो मुहताज ग़ैर का न हुआ