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काली रातों में फ़सील-ए-दर्द ऊँची हो गई | शाही शायरी
kali raaton mein fasil-e-dard unchi ho gai

ग़ज़ल

काली रातों में फ़सील-ए-दर्द ऊँची हो गई

प्रकाश फ़िक्री

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काली रातों में फ़सील-ए-दर्द ऊँची हो गई
अंधी गलियों में ख़मोशी लाश बन के सो गई

बर्फ़ से ठंडे अंधेरों की सिसकती गोद में
मरते लम्हों की उदासी दिल में काँटे बो गई

शहर की सोती छतें हों या फ़सुर्दा रास्ते
क़तरा क़तरा गिरती शबनम सब का चेहरा धो गई

नींद में डूबे शजर से चीख़ते पंछी उड़े
ख़ौफ़ के मारे हवा में कपकपी सी हो गई

इस अकेले-पन के हाथों हम तो 'फ़िक्री' मर गए
वो सदा जो ढूँडती थी जंगलों में खो गई