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काकुल की तरह बख़्त भी बल खाए हुए है | शाही शायरी
kakul ki tarah baKHt bhi bal khae hue hai

ग़ज़ल

काकुल की तरह बख़्त भी बल खाए हुए है

नूर मोहम्मद नूर

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काकुल की तरह बख़्त भी बल खाए हुए है
क्यूँ आज मुक़द्दर मुझे उलझाए हुए है

ज़ंजीर-ए-मेहन पाँव में पहनाए हुए है
या जल्वा-ए-जानाँ मुझे बहलाए हुए है

ले जाए मुझे सू-ए-चमन अब न बहाराँ
दिल क़िस्मत-ए-ज़िंदाँ की क़सम खाए हुए है

मैं बंद क़फ़स में हूँ मगर फ़िक्र-ए-नशेमन
सीने में जिगर दर्द से बर्माए हुए है

सुलझेगी न मश्शातगी-ए-अक़्ल-ओ-ख़िरद से
वो ज़ुल्फ़-ए-जुनूँ जिस को कि उलझाए हुए है

उस को भी तो मिल जाए ज़रा हुस्न का सदक़ा
दामाँ तलब-ए-दर पे जो फैलाए हुए है

ऐ 'नूर' मुझे कुछ तो भरोसा है ज़बाँ पर
कुछ बख़्त-ए-सआ'दत मुझे गरमाए हुए है