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काफ़िर हूँ गर किसी को दीवाना जानता हूँ | शाही शायरी
kafir hun gar kisi ko diwana jaanta hun

ग़ज़ल

काफ़िर हूँ गर किसी को दीवाना जानता हूँ

जोशिश अज़ीमाबादी

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काफ़िर हूँ गर किसी को दीवाना जानता हूँ
अहवाल-ए-क़ैस का भी अफ़्साना जानता हूँ

ऐ शोला-रू ज़बानी है तेरी गर्म-जोशी
मैं ख़ूब रब्त-ए-शम-ओ-परवाना जानता हूँ

जाम-ए-शराब का मैं काहे को मुल्तजी हूँ
आँखों को तेरी साक़ी पैमाना जानता हूँ

कुंज-ए-क़फ़स को सौंपा रोज़-ए-अज़ल क़ज़ा ने
ने दाम जानता हूँ ने दाना जानता हूँ

रहता हूँ मस्त हर दम याद-ए-निगह में उस की
काफ़िर हूँ गर मैं राह-ए-मय-ख़ाना जानता हूँ

तेरे कुनिश्त से मैं वाक़िफ़ नहीं बरहमन
अपने हरीम-ए-दिल को बुत-ख़ाना जानता हूँ

सौदा-ए-इश्क़ जब से मुझ को हुआ है 'जोशिश'
आबादी-ए-जहाँ को वीराना जानता हूँ