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काफ़िर हुए सनम हम दीं-दार तेरी ख़ातिर | शाही शायरी
kafir hue sanam hum din-dar teri KHatir

ग़ज़ल

काफ़िर हुए सनम हम दीं-दार तेरी ख़ातिर

वलीउल्लाह मुहिब

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काफ़िर हुए सनम हम दीं-दार तेरी ख़ातिर
तस्बीह तोड़ बाँधा ज़ुन्नार तेरी ख़ातिर

गुल सीना-चाक बुलबुल नालाँ चमन में देखी
आँखों के दुख से नर्गिस बीमार तेरी ख़ातिर

अबरू की तू इशारत जिस की तरफ़ करे था
चलती थी मुझ में उस में तलवार तेरी ख़ातिर

मैं झूट सच भी यक-दम आँसू न उन के पोंछे
जो चश्म रोज़-ओ-शब हैं ख़ूँ-बार तेरी ख़ातिर

सब आश्नाओं से हम बेगाना हो रहे थे
अब ज़िंदगी है अपनी दुश्वार तेरी ख़ातिर

मस्जिद में मय-कदे में क्या कैफ़ी और सूफ़ी
बेहोश तेरी ख़ातिर होश्यार तेरी ख़ातिर

जो राह-ए-आशिक़ी में थी पस्ती-ओ-बुलंदी
वो हम ने की सरासर हमवार तेरी ख़ातिर

पथरा गई हैं आँखें अंजुम की तरह हर शब
बेदार रहते रहते ऐ यार तेरी ख़ातिर

इस अब्र में चमन ने क्या क्या किया है साक़ी
अस्बाब मय-कशी का तय्यार तेरी ख़ातिर

हर ग़ुंचा है गुलाबी हर गुल है साग़र-ए-मय
मय-ख़ाना हो रहा है गुलज़ार तेरी ख़ातिर

आगे तो कूचा-गर्दी शेवा न था 'मुहिब' का
की अब शुरूअ' उस ने नाचार तेरी ख़ातिर