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काबा ओ दैर में है किस के लिए दिल जाता | शाही शायरी
kaba o dair mein hai kis ke liye dil jata

ग़ज़ल

काबा ओ दैर में है किस के लिए दिल जाता

हैदर अली आतिश

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काबा ओ दैर में है किस के लिए दिल जाता
यार मिलता है तो पहलू ही में है मिल जाता

ख़िदमत-ए-यार में मैं जबकि हूँ साइल जाता
कुछ न कुछ बोसा ओ दुश्नाम से है मिल जाता

तेरे दाँतों से जो होने को मुक़ाबिल जाता
सूरत-ए-अश्क गुहर ख़ाक में मिल मिल जाता

फल मिला है ये तिरी तेग़ से हम को ऐ तुर्क
फूट की तरह हर इक ज़ख़्म है खिल खिल जाता

रुख़ के होते हुए ढूँडा न दहन का मज़मून
सहल को छोड़ के क्यूँ जानिब-ए-मुश्किल जाता

पर तो कतरे हैं यक़ीन है कि छुरी भी फेरे
ज़मज़मों से मिरे सय्याद है हिल हिल जाता

ज़ख़्म-ए-कारी की तिरी तेग़ से अल्लाह-री ख़ुशी
रक़्स करता हुआ दुनिया से है बिस्मिल जाता

राह भूले हुए हाजी है भटकता नाहक़
क'अबतुल्लाह जो जाता तो सू-ए-दिल जाता

तरफ़ा रखती है ख़राबात-ए-मुग़ाँ कैफ़िय्यत
होशियार आ के है इस बज़्म से ग़ाफ़िल जाता

राह में शान-ए-करीमी है तिरी भर देती
फिर के ख़ाली किसी दर से जो है साइल जाता

ऐ सबा तू ही उड़ा कर रुख़-ए-लैला दिखला
दस्त-ए-मजनऩूँ नहीं ता-पर्दा-ए-महमिल जाता

कौन सी राहत-ए-जाँ की हैं ये आँखें मुश्ताक़
कर के अंधेर है वो रौनक़-ए-महफ़िल जाता

आमद-ए-यार की कानों से सुनी है जो ख़बर
छुप के पहलू से है आँखों की तरफ़ दिल जाता