काबा-ए-दिल को अगर ढाइएगा
याद रखिए कि सज़ा पाइएगा
याद में मेरी जो घबराइगा
मेरी तुर्बत पे चले आइएगा
थोड़ी तकलीफ़ सही आने में
दो घड़ी बैठ के उठ जाइएगा
याद दिलवा के वो अगली बातें
भरी महफ़िल में न रुलवाइएगा
हाल-ए-दिल कहिए तो फ़रमाते हैं
बकते बकते मिरा सर खाइएगा
यक ज़रा आप को हम देख तो लें
बैठिए बैठिए फिर जाइएगा
ये 'हक़ीर' आप से डरने का नहीं
आँखें बस ग़ैर को दिखलाइएगा

ग़ज़ल
काबा-ए-दिल को अगर ढाइएगा
हक़ीर