जुज़्व-ओ-कल का हम इस अंदाज़ से रिश्ता समझे
देख कर क़तरे को माहिय्यत-ए-दरिया समझे
हर अदा तेरी हम-आहंग थी दिल से इतनी
हर अदा को तिरी हम दिल का तक़ाज़ा समझे
हम वो ख़ुद-बीं हैं कि हंगामा-ए-दिल के आगे
सारे हंगामा-ए-गीती को तमाशा समझे
हम को मिट्टी के घरोंदों की हक़ीक़त मा'लूम
जिस्म की ख़ाक को हम नफ़्स का साया समझे
हम कि हर निस्बत-ए-मौहूम को अपनाते रहे
इक शिकस्ता से तअ'ल्लुक़ को भी कितना समझे
उस्तुवार इतना हुआ रिश्ता-ए-आवाज़ 'अकबर'
दिल की धड़कन को भी हम दोस्त का लहजा समझे
ग़ज़ल
जुज़्व-ओ-कल का हम इस अंदाज़ से रिश्ता समझे
अकबर हैदरी