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जुर्म-ए-उम्मीद की सज़ा ही दे | शाही शायरी
jurm-e-ummid ki saza hi de

ग़ज़ल

जुर्म-ए-उम्मीद की सज़ा ही दे

नासिर काज़मी

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जुर्म-ए-उम्मीद की सज़ा ही दे
मेरे हक़ में भी कुछ सुना ही दे

इश्क़ में हम नहीं ज़ियादा तलब
जो तिरा नाज़-ए-कम-निगाही दे

तू ने तारों से शब की माँग भरी
मुझ को इक अश्क-ए-सुब्ह-गाही दे

तू ने बंजर ज़मीं को फूल दिए
मुझ को इक ज़ख़्म-ए-दिल-कुशा ही दे

बस्तियों को दिए हैं तू ने चराग़
दश्त-ए-दिल को भी कोई राही दे

उम्र भर की नवा-गरी का सिला
ऐ ख़ुदा कोई हम-नवा ही दे

ज़र्द-रू हैं वरक़ ख़यालों के
ऐ शब-ए-हिज्र कुछ स्याही दे

गर मजाल-ए-सुख़न नहीं 'नासिर'
लब-ए-ख़ामोश से गवाही दे