जुर्म-ए-इज़हार-ए-तमन्ना आँख के सर आ गया
चोर जो दिल में छुपा था आज बाहर आ गया
मेरे लफ़्ज़ों में हरारत मेरे लहजे में मिठास
जो कुछ इन आँखों में था मेरे लबों पर आ गया
जिन की ताबीरों में थी इक उम्र की वारफ़्तगी
फिर निगाहों में उन्हीं ख़्वाबों का मंज़र आ गया
शहर के आबाद सन्नाटों की वहशत देख कर
दिल को जाने क्या हुआ मैं शाम से घर आ गया
पहले चादर की हवस में पाँव फैलाए बहुत
अब ये दुख है पाँव क्यूँ चादर से बाहर आ गया
हम दिवानों के लिए थीं वुसअतें ही वुसअतें
ख़त्म जब सहरा हुआ आगे समुंदर आ गया
तुम ने 'बाक़र' दिल का दरवाज़ा खुला रक्खा था क्यूँ
जिस को आना था वो आख़िर दर्द बन कर आ गया
ग़ज़ल
जुर्म-ए-इज़हार-ए-तमन्ना आँख के सर आ गया
सज्जाद बाक़र रिज़वी