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जुरअत-ए-इज़हार का उक़्दा यहाँ कैसे खुले | शाही शायरी
jurat-e-izhaar ka uqda yahan kaise khule

ग़ज़ल

जुरअत-ए-इज़हार का उक़्दा यहाँ कैसे खुले

सलीम शाहिद

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जुरअत-ए-इज़हार का उक़्दा यहाँ कैसे खुले
मस्लहत का बीम दिल में है ज़बाँ कैसे खुले

बे-दिली से है रग-ओ-पै में लहू ठहरा हुआ
आँख में पोशीदा ज़ख़्मों का निशाँ कैसे खुले

दाम-ए-साहिल है सफ़ीने की असीरी का सबब
सर पटकता हूँ कि अब ये बादबाँ कैसे खुले

हर्फ़-ए-मुबहम की तरह औराक़-ए-रोज़-ओ-शब में हूँ
राज़ आख़िर दुश्मनों के दरमियाँ कैसे खुले

हर घड़ी दस्तक कोई देता है अंदर से मुझे
सोचता रहता हूँ बाब-जिस्म-ओ-जाँ कैसे खुले

लफ़्ज़ हैं शाहिद मिरी तहरीर के अफ़्सुर्दा लब
शे'र में पोशीदा मा'नी का जहाँ कैसे खुले