जुरअत-ए-इश्क़ हवस-कार हुई जाती है
बे-पिए तौबा गुनहगार हुई जाती है
दिल है अफ़्सुर्दा तो बे-रंग है हर रंग-ए-बहार
बू-ए-गुल भी ख़लिश-ए-ख़ार हुई जाती है
बावजूदे-कि जुनूँ पर हैं ख़िरद के पहरे
फिर भी ज़ंजीर की झंकार हुई जाती है
हर नफ़स मौज-ए-फ़ना तेरे थपेड़ों के तुफ़ैल
कश्ती-ए-उम्र-ए-रवाँ पार हुई जाती है
जो नमाज़ आज सर-ए-दार अदा की मैं ने
सज्दा-ए-शुक्र का मेआर हुई जाती है
जितनी आसानियाँ होती हैं फ़राहम दिन रात
ज़िंदगी उतनी ही दुश्वार हुई जाती है
जब से देखा है किसी के रुख़-ए-रौशन को 'फ़िगार'
आँख हर जल्वे से बेज़ार हुई जाती है
ग़ज़ल
जुरअत-ए-इश्क़ हवस-कार हुई जाती है
फ़िगार उन्नावी