जुनून शौक़ यक़ीं ज़ाब्ते से आई है
उड़ान मुझ में मिरे हौसले से आई है
मुझे भी तो कभी बैनस्सुतूर में रखता
फिर आज एक सदा हाशिए से आई है
भुलाना जब कभी चाहा है मैं ने माज़ी को
निकल के याद तिरी हाफ़िज़े से आई है
जिसे ख़याल का मरकज़ कभी बनाया था
सुनहरी धूप उसी दाएरे से आई है
यक़ीन कर लो तो आएँगे सब नज़र अपने
तुम्हारे दिल में कजी वाहिमे से आई है
किया है मैं ने ख़ुद अपना मुहासबा अक्सर
तमीज़ मुझ में इसी तजरबे से आई है
जो मैं ने सोच का बदला है ज़ाविया 'नायाब'
हर एक चीज़ नज़र क़ाएदे से आई है

ग़ज़ल
जुनून शौक़ यक़ीं ज़ाब्ते से आई है
जहाँगीर नायाब