जुनूँ से खेलते हैं आगही से खेलते हैं
यहाँ तो अहल-ए-सुख़न आदमी से खेलते हैं
निगाह-ए-मैकदा सब से ज़ियादा क़ाबिल-ए-रहम
वो तिश्ना-काम हैं जो तिश्नगी से खेलते हैं
तमाम उम्र ये अफ़्सुर्दगान-ए-महफ़िल-ए-गुल
कली को छेड़ते हैं बेकली से खेलते हैं
फ़राज़-ए-इश्क़ नशेब-ए-जहाँ से पहले था
किसी से खेल चुके हैं किसी से खेलते हैं
नहा रही है धनक ज़िंदगी के संगम पर
पुराने रंग नई रौशनी से खेलते हैं
जो खेल जानते हैं उन के और हैं अंदाज़
बड़े सुकून बड़ी सादगी से खेलते हैं
'ख़िज़ाँ' कभी तो कहो एक इस तरह की ग़ज़ल
कि जैसे राह में बच्चे ख़ुशी से खेलते हैं

ग़ज़ल
जुनूँ से खेलते हैं आगही से खेलते हैं
महबूब ख़िज़ां